
वाराणसी। देश में मंगलवार को हिंदी दिवस मनाया गया। यह खास दिन वाराणसी स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लिए भी अहम है। इस सत्र से बीएचयू में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में बीटेक की पढ़ाई हिंदी माध्यम में शुरू होने जा रही है। 116 साल पहले साल 1905 में कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में भी महामना मदन मोहन मालवीय ने विज्ञान और तकनीक की शिक्षा भारतीय भाषाओं में कराने की बता कही थी। इसके बाद महामना ने 1920 में बनारस के एक साहित्य सम्मेलन में भी हिंदी की मजबूत पैरवी की थी। उन्होंने कहा था कि हिंदी की जननी कही जाने वाली संस्कृत भाषा का शब्द भंडार दुनिया के हर भाषाओं से बड़ा है। हम यह कैसे कह सकते हैं कि हिंदी इंजीनियरिंग और आधुनिक विज्ञान के लिए अयोग्य है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय का इतिहास पुस्तक के अनुसार मैदागिन स्थित टाउन हाल में गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में अधिवेशन चल रहा था। देश-विदेश के बड़े नेता समेत काशी के विशिष्ट विद्वान भी उपस्थित थे। 31 दिसंबर को सभा के सामने मालवीय जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की योजना रखी। विश्वविद्यालय स्थापना के मूल उद्देश्य में बताया कि विज्ञान और तकनीकी के विकास और विस्तार के लिए भारतीय भाषाओं के माध्यम से पठन-पाठन की व्यवस्था की जाएगी।इसमें विज्ञान से लेकर इंजीनियरिंग की शिक्षा भी हिंदी में प्रदान करने की सहमति बनी। उद्देश्य में यह भी कहा गया कि कला, विज्ञान, तकनीक और व्यावसायिक विषयों में भारतीय भाषाओं में उपयुक्त आलेख, पाठ्यपुस्तक और अध्ययन को प्रोत्साहित किया जाएगा। उद्देश्य प्रस्ताव में इंजीनियरिंग में सिविल अभियांत्रिकी, नगर पालिका एवं स्वच्छता अभियांत्रिकी, यांत्रिक अभियांत्रिकी, विद्युत अभियांत्रिकी, स्थापत्य, खनन एवं धातुकीय आदि पाठ्यक्रम की चर्चा हुई थी। बहरहाल, 1916 में बीएचयू की स्थापना की अनुमति ब्रिटिश भारत की सरकार ने अंग्रेजी को माध्यम बनाने के बाद ही दी। हालांकि यह भी कहा गया कि जब हिंदी राजकीय भाषा बनेगी तब पढ़ाई का माध्यम भी हिंदी कर दिया जाएगा।विश्वविद्यालय के विद्वानों का मानना है कि अब महामना का हिंदी प्रेम साकार हो गया है। तात्कालिक परिस्थितियां तो प्रतिकूल थीं मगर आजादी मिलते-मिलते उन्होंने विश्वविद्यालय के अन्य संकायों और विभागों में हिंदी को मूल भाषा बना दिया था। आईआईटी-बीएचयू में हिंदी पाखवाड़ा का अंतिम दिन था। जल्द ही बीटेक के सभी ब्रांच का सिलेबस भी हिंदी में जारी हो जाएगा। वहीं कार्यालयीन कार्यों को भी हिंदी में ही किया जा रहा है।आईआईटी-बीएचयू में खनन अभियांत्रिकी विभाग के डिस्टिंगविश प्रोफेसर देवेंद्र प्रताप सिंह बताते हैं कि महामना आधुनिक विज्ञान की शिक्षा को हर व्यक्ति तक पहुंचाने के पक्षधर थे। उनका कहना था कि यह तभी संभव हो पाएगा जब इस ज्ञान का माध्यम हमारी मातृभाषा हो। यदि यह काम हो जाए तो विज्ञान और तकनीकी को राष्ट्र धरोहर बनाकर दुनिया भर में ख्याति प्राप्त करेंगे। महामना अंग्रेजी भाषा को भारतीयों के लिए दुरूह माना है। इसे सीखने में छात्र जितना समय लगाएंगे। उतने में वह विज्ञान और तकनीकी को सीख एक कुशलता प्राप्त कर सकता है।प्रो. सिंह बताते हैं कि मालवीय जी ने एक उद्बोधन में कहा था कि 19वीं शताब्दी में आज जितनी भी विज्ञान की पुस्तकें हैं। वह सब अंग्रेजी में है। मगर दो हजार वर्षों के भी पहले से भारत में गणित, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद आदि की पुस्तकें संस्कृत में थी। इस तरह से हिंदी में आधुनिक विज्ञान की पुस्तकों के लेखन में कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं आएगी। वह इस संदर्भ में हमेशा जापान का उदाहरण देते थे। बीएचयू के विशेष कार्याधिकारी रहे डॉ. विश्वनाथ पांडेय बताते हैं कि मालवीय जी ने 1900 में ही सिविल सेवा परीक्षा को हिंदी में भी कराए जाने की मांग की थी। अंग्रेजों पर दबाव पड़ा और स्वीकार कर लिया गया। मदन मोहन मालवीय ने जब वकालत शुरू की तो न्यायालय में अंग्रेजी, फारसी और उर्दू भाषा का प्रयोग देखा। हिंदी की अवहेलना से उन्हें यह अहसास हुआ कि जब तक हिंदी भाषा का प्रयोग न्यायालय में नहीं होता। तब तक हिंदी मूल धारा से कटी-कटी रहेगी। इसके बाद उन्होंने 10 साल के अंदर वकालत में भी हिंदी भाषा को लागू करवा दिया।